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परिभाषा प्रेम की
प्रेम की परिभाषा यूँ है मेरी
कि मिलन जिस्मों का नहीं,
वरन मिलना दिलों का है ज़रूरी..!

प्रेम पूर्ण होता है विश्वास से,
प्रेम होता है किसी की आस से,
हृदय के कम्पन में बार बार,
आ जाता है अपने प्रिय का नाम...!

प्रेम की होती प्रकाष्ठता इतनी गहरी,
कि प्रेम से लिखे दो लफ़्ज़ों में ही ग्रन्थ है,
प्रेम से सुने गए शब्दों में ही संसार समन्त है,
प्रेम की जुबां होती है शहद से ज़्यादा मीठी...!

प्रेम की तृष्णा हर पल बढ़ती है,
प्रेम की गहराई सागर से गहरी है,
प्रेम रस में भिगोकर कवि प्रेमी बन गए,
प्रेम के वश होकर भगवान सारथी बन गए...!

प्रेम की प्रथा को राम ने खाये जूठे बेर,
प्रेम हृदय में कभी उदय होता है देर सवेर,
तो कभी फूट जाती है हृदय में प्रेम की कपोल,
प्रेम की कुछ अधूरी से कामना भी होती है...!

प्रेम की नई उमंग, प्रेम का है नया उल्लास,
प्रेम के बंधन में बंधे भगवान दौड़े भगत के पास,
रंग कर प्रेम के रंग में खेले गोपियों संग होली,
बन बालक भगवान करे बच्चो संग ठिठोली,
प्रेम को लिखे जो शब्दों में वो बने कवि...!
© Rohit Sharma "उन्मुक्त सार"