...

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मयखाना!!
शांत नहीं है कोई सब आतुर हैं शोर मचाने को
छल छल करते आँसू बहते हैं मुझे बहाने को

नभगंगा में बैठे तारे घूर के मुझको देख रहे
मैं भी उनको घूर रहा हूँ अपने चाँद को पाने को

बेरोजगारी, बदनामी मैं बीत गया जीवन आधा
फिर भी देखो जिन्दा हैं बस आप के वापस आने को

शायरी से चलता घर तो मैं जगत पिता ही बन जाता
पर पैसा लाना पड़ता है दो वक़्त की रोती खाने को

दिल को साफ रखते रखते अब जा कर ये पता चला
बस मुँह ही धोना होता है यहाँ सच्चे इश्क़ को पाने को

शहर के मेरे हर घर में रोज कलेश नए हो जाते हैं
उठो नारियों बंद करो इस जल्ली से मयखाने को