...

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चली आओ
मैं जानता हूं तुम्हारे यह अल्पविराम
युगों की प्यास खुद में समेटे ,
धरती के सूखते जलाशयों से
प्रतीक्षारत ,
हैं आतुर , खुद को, अपनी सीमाओं को
मिटा देने को,
समा जाने को उस उपवन के दिव्यानंद में
जहां बहती है सदा रसधार प्रेम की और
जिसका उद्घोष मैं करता हूं आज
सम्मुख तुम्हारे
मानकर साक्षी तुम को, खुद को
और उन सभी दिव्य जनों को
जो हैं स्थल-भूतल के वासी, सहचर हमारे!

हे धरा की गोद में चंद्रमणि-सी शोभित,
मेरी विनम्र गजगामिनी,
यह राह तुम्हारी है,यह राह हमारी है,
आनंद एवं संताप के अतिरेक से परे,
सांसारिकता के आडंबर के परे ,
चली आओ झूठे देवताओं को त्याग कर,
मन में छवि श्याम की धरे ;
आत्माओं की समाधि की ओर,
अनंत की ओर,
अद्भुत अलौकिक वटवृक्ष की ओर ,
चली आओ!



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