उठो, न् हो निराश भवपर
उठो, न् हो निराश भवपर-
हे दीप चक्षु! अश्रु क्यु अंजन हुए, संचित विक्षुब्ध दर्पण तुम।
किसी विकृत प्रसंग के वीलय में तुम्हारा विक्षिप्त सा अर्चन।
हे सूचिंत, तुम् करूण आज कहां गुम हो गए।
हे व्यतीत, तुम प्रसन्न अरुण आज क्यों धूम हो गएं।
क्या प्रसंग प्रवेश सुमधुर थे?या सजा थी?
क्या पुष्पों के गंध में भंवर को बंधी वजा़ थी?
उठो, न् हो निराश भवपर
मोह ताप के ज्वलनशील पर
त्याग तप के उदय प्रभाकर।
दृश्य से परे गंध तुम पर बंधन अक्षम हों...
अजातशत्रु की धार पर आविष्कृत तुम नीत अप्रतीम हो...
हे प्रिय, समीक्षा प्रक्षालन पुनरावृत्ति से मानस पटल तुम कुंदन हों..
आज प्रसंगिनी के भाल पर तुम प्रसन्न चंदन हो...
उठो, न् हो निराश भवपर
-kamal muni
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