डर कैसा?
जब उम्मीद की मुस्कुराहट बन धूप मेरे चेहरे की,
कभी खिल ही न पाई तो डर कैसा?
तेरे बाज़ुओं की गरमाहट मेरे गले का मफलर बन ही न पाई,
तो डर कैसा?
तेरी यादों का काफ़िला अक्सर मेरी इंस्टेंट कॉफी सा हो जाता है,
उस कॉफी को गरमा गरम अपने लबों से न...
कभी खिल ही न पाई तो डर कैसा?
तेरे बाज़ुओं की गरमाहट मेरे गले का मफलर बन ही न पाई,
तो डर कैसा?
तेरी यादों का काफ़िला अक्सर मेरी इंस्टेंट कॉफी सा हो जाता है,
उस कॉफी को गरमा गरम अपने लबों से न...