...

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दो जिस्म एक जान।
याद है तुझे कभी तूने कहा था
हम दो जिस्म ऐक जां हैं
सच कहा था !
रुक गई सांसें मेरी
देखो ,दिल ये मेरा परेशा है।
धड़कना चाहता है ये पास तू कहां है

अरे !आखिर हम दो जिस्म एक जान हैं
लहू टपक रहा है आंखों से
धड़कन रिहाई चाहे है
नज़रें ये पागल उठ उठ कर
आसमान की ओर जाए है।
लेकिन तू आना मत
वरना ये दिल फिर से जी जाए है,

ये ठीक है कि घुटन सी होती है
ये ठीक है कि सांसें उलझती है
लेकिन मज़ा आ रहा है मर मर के
भी जीने में
अरे मेरा दिल जो नहीं है सीने में,

शिकायत क्या करूं तेरे चले जाने का
वक़्त की रेत की तरह हाथों से बह जाने का,
मांगा ही हम से तूने कुछ कहां
हमने ही लिख दिया तुम्हारे नाम
अपना सारा जहां।

चलो ठीक है तुम ने एक बात कहीं थी
हम अलग थे मैं तुम्हारी जां नहीं थी।

मगर देखो ।
मुझमें कितनी नादानी भरी थी
रूह तक को तेरे नाम किया,
नाइंसाफी कर अपने वजूद से
तेरे लिए इसे वीरान किया,
सब कुछ ही बर्बाद।किया
खुद को बड़ा परेशान किया
तुमने कहा ,
हम दो जिस्म इक जां हैं
और इसी पे मैंने अपना
ईमान किया।
© fayza kamal