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दहेज (एक अभिशाप)
*_कितनी है विडंबना ,कैसा ये श्राप है_*
*_कलुषित समाज में पल रहा , दहेज रूपी पाप है_*
*_आओ मिलकर सब एक भूमिका निभाते हैं_*
*_कह रहा राघव बस इतना आज सब इस बीमारी को दूर भगाते हैं_*

दोस्तों आज भी आधुनिकता के इस दौर में लोगों में शैक्षिक जागरूकता होते हुये भी हमारे समाज में महिलाओं से संबंधित "महिला तस्करी", "बाल - विवाह ", "भ्रूण हत्या " जैसे अनेकों कुरीतियां फैली हुई है उन्हीं सब कुरीतियों में से एक है दहेज प्रथा भी है जो समस्त नारी जाति के लिए एक अभिशाप से कम नहीं है। आज उसी अभिशाप को अपने चंद पंक्तियों के द्वारा एक पिता और पुत्री के भाग्य की विडम्बना को आप सब से साझा करना चाहता हूँ।
एक बाप अपने दिल में अनगिनत उमंगें लिए अपनी बेटी की शादी कर उसके सुनहरे स्वप्न को साकार करता है , अपनी पूरी उम्र पूरे यत्न से अपने जिगर के टुकड़े को पाल - पोसकर, घर - गृहस्थी की समस्त शिक्षा देकर किसी के हवाले करता है। फिर भी बदले में मांगा जाता है उससे दहेज । मैं आप सभी से पूछना चाहूंगा — क्या एक पिता अपनी कन्या का दान हमेशा के लिए किसी को कर देता है तब भी दहेज देना उससे लिए इतना जरूरी होता है।

एक पिता की मार्मिक वेदना सुनाता हूं

जन्म हुआ बेटी का , घर में साक्षात् लक्ष्मी आई है,
पापा की खुशियों का ठिकाना न रहा , मिठाई खूब बटबाई है।

घर में दादा- दादी , चाचा - चाची भी खुशियां खूब मनाते हैं,
नाना- नानी, मौसा - मौसी मामा - मामी सभी फूले न समाते हैं।

घर में देखकर लक्ष्मी स्वरूप बेटी को , सब ऐसे इठलाते हैं,
धन्य हो गए भाग्य हमारे ,सबको बस यही बारंबार बताते हैं।

धीरे धीरे लगी वो बढ़ने , फिर कुछ दिन में लगी वो पढ़ने,
पढ़ते - पढ़ते नाम अपना खूब कमाती है , अपने माता पिता का मान बढ़ाती है।
जग में बेटी होती अति प्यारी , अपने नाजुक कंधों पर उठाती दो घर की प्रतिष्ठा की जिम्मेदारी।

अपनी फूल - सी बेटी को बढ़ते देखकर माँ को उसके ब्याह की चिंता बहुत सताती है,
हो गयी बेटी हमारी बड़ी सयानी, बात ये उसके पिता को बताती है।

चिंता नहीं उनको बेटी के लिए सुयोग्य वर मिलने की , यहाँ तो उनकी कुछ और ही मजबूरी है,
बेटी के सुख चैन की खातिर , खुशी - खुशी दहेज देना बहुत जरूरी है।
दहेज बिना नहीं बनता रिश्ता , बेटे का मोल जरूरी है।

एक पिता अनमोल रतन बेटी है देता , क्या इतनी पीर ये थोड़ी है
बेटी को मिले वहां सुख, बिन दहेज कल्पना ये अधूरी है।

बेटी की खुशियों के खातिर नहीं है कुछ भी देने को, पर देना उस बेबस पिता की मजबूरी है ,
दे रहा अनमोल बेटी वो अपनी, फिर दौलत भी देना क्या जरुरी है
शिक्षित समाज के इस नए दौर में , लालच ने क्यों मति फेरी है
अपने ही बेटे की काबिलियत , चंद पैसों से तौलना हो जाता क्या इतना जरुरी है।

आखिर कैसे मान ले एक पिता , कल न डिगने वाली नियत ये तेरी है
धिक्कार करता राघव उसपे , जिसकी बिक रही जमीरियत पूरी है
आज लग रही बोली खुशियों की समाज में , इंसानियत अधूरी है
सिसक रहा गरीब यूं , लक्ष्मी पाकर भी गरीब ये बसती मेरी है

ढूंढ रहा बेटी के लिए वर , पर अभी इच्छा अधूरी है
पैसे के बिना कहां मिलती , खुशियां यहां पूरी है
बेटी की ज़िंदगी में खुदा ने, कैसी ये रीत उकेरी है
बस चाह रहा वो पिता , कैसे भी हो जाए बेटी की पग फेरी है

होने चली बेटी पराई , होने को अब उसकी सगाई
कभी थी उसके जो घर , कभी थी वो जिस घर की जाई
इक पिता ने बेचकर सारी हां खुशियां, बेटी की शादी कराई
इस पिता की लक्ष्मी अब , किसी दूसरे के घर को आई

रह गया वृद्ध पिता अकेला , बेटी भी अब हुई पराई
बेटी की खुशी की खातिर , उसने खुशियों की हां बली चड़ाई
बेचकर सबकुछ हां अपना , कर दी उसने बेटी की विदाई
आकर सासरे बेटी भी अपना हर फर्ज बड़ी निष्ठा से निभाई
सर्वगुणसम्पन्न होकर भी वहाँ वो सबकी आँखों का तारा न बन पाई

संग लाई अपार दौलत , फिर भी ललचाई नियत को न भर पाई
जब वो उसके मनोभाव को पूरा न कर पायी , आखिर मिलकर सबने उसके जिस्म को आग लगाई
आज फिर से हो गई इंसानियत शर्मिंदा , न निकली फिर किसी के मुख से दुहाई।

_चंद पंक्तियां पिता को समर्पित_

**रह सके बेटी हां खुश , अपनी खुशी की बली चढ़ाता है*
*यूं ही नहीं कहलाता पिता , वो हर फर्ज निभाता है*
*दिखा लेते है सब अपनापन पर वो नहीं कभी जताता है*
*बोझ तले दबता है खुद , अपना फर्ज निभाता है*

© Akash Raghav
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