...

6 views

एक विहंग व्यथा।

एक रात्रि का अवशेष सुनो जब वह मंदमान तुरंग था।
जैसे नील आभा को लज्जीत करता स्वर्ण सा एक रंग था।

दिनचर्या के उपहार सजक कर,एक डालपर आसनस्थ था ऐैसे।
धरा के मिलन को;वर्षा की बूंदे कमलपत्र पर;हो मोती जैसे।

अवगुण सारे त्याग चुका था; घोसले की आढ में।
चंद्रमा की शीतल लहरो में निद्रा के प्रगाढ़ में।

मधुरमय स्वप्न में; संचित विद्या लहराती पंखों में।
दिनचर्या का अथक परिश्रम, धारा बनकर झरती आंखों में।

एक प्रियतमा, एक प्रतीक था निद्रा के बहाल में।
तृप्ति से संतृप्ति मे, अमर मधुर ख्याल में।

शांत देवदारू के उपवन में, झंझावात उद्दंड हुआ।
देवदारू के विनय प्रभाको, कुचल कर, एक अनल प्रचंड हुआ।

जब दावानल की शिखर शीखाने, बसेरों का स्पर्श पान किया।
सारे जीवचर अपने जन से, वन के; धूंकार ने अनजान किया।

तृप्ति का झरना सूख गया; निद्रा से विहंग जाग गया।
अनुभूति का क्षण दुख; गया, मन में से उसके राग गया।

सहजन में प्रियतमा साथ हुई पर शिशु उड़ान में, अक्षम हुआं।
बिनु ममता के अनाथ हुई और स्नेह आंगन में,अक्षम हुआं।

सुत स्नेह को याद करती,पंखों से अपने ज्वाला बुझाती।
अनल लतिकाऐ उपहास करती,उसके पंखों को झूलाती।

और विहंग,मेघपति को; मस्तक वंदन अर्पण करता।
स्तुति का चंदन लगाकर,अश्रु का तर्पण करता।

गरम श्वास के कर्पूर से;
मन की व्यथा के जलन से,
आरती सा रोदन करता।

मात-पिता में शिशु की वेदना, देख मेघों में हुई वेदना।
जाग उठी थी नई चेतना,अब मेघौ की संवेदना।

हाहाकार हुआ था वनों में, गंभीर विस्फोट हुआ मेघों में।
झंकार हुई मेघ जनों में, अधीर प्रकाश हुआ वनों में।

हुई गर्जना वृष्टि आई,सबके मन में खुशी लहराई।
अनल प्रकोप मिटाने आई,दमन उसका करके छाई।

धीरे-धीरे सब धुल जाता,वन उपवन का तन खील जाता।

जो रूद्र रूप का काजल लगाकर, बैठा था 'वन' सुस्त मन में।
अब हरियाली का अब भोग लगाकर, खो गया था वन मस्त चमन में।

विहंग समाज प्रसन्न हुआ; अपने शीशुओ से न् भिन्न हुआं।
यह देख मेघ मुक्त दु:खछिन्न हुआ; अपने एक दूजे के दल से संछिन्न हुआ।

दमनीयो से मुक्त हुए; प्रार्थनाओ के सुक्त हुऐं।

@kamal