...

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कुछ अनकहे अल्फाज
इक शोर है मेरे अंदर और इक खामोशी मेरे बाहर,,
जो न जाने शाम होते ही कहां से आ जाती है!
जो मेरे अनकहे अल्फाजों को बाहर ले आती है और फिर खुद से ही खुद ही बाते करने लग जाती है...
फिर दिन के उजाले में न जाने कहा खो जाती है और बदल लेती है खुद को दुनिया के मुताबिक फिर खुद को ही झुठला देती है
फिर होश आता है कि कितना बदल गई हु मै !! इतना कैसे संभल गई हूं मैं??
क्या मै अभी भी वो हूं जो हुआ करती थी
या खो चुकी हूं खुद को खुद मे ही कहीं।।