...

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रंज।
क्या कोई शौक़ रहा ज़िंदगी में कभी?
ज़िंदगी थोड़ी ही मिलती ज़िंदगी में कभी।

हवस रहा मुझ में मेरे ही बरबादी का,
ज़िंदगी को दिया था मौक़ा हमने भी कभी।

उसकी एक नज़र,बातपर लुटाई थी शौहरत मैंने,
उसने ज़ुबां सुनी सिर्फ़,देखा नहीं मेरा दिल कभी।

इससे पहले शिक़वा करते,या करते कुछ बयां,
जो मुस्कुराके गया था मुझसे बिछड़कर कभी।

बैठकर किनारे समंदर के ख़ूब रोया मैं,
सुना हैं दरिया डूबा देता हैं हारे को कभी कभी।

तेरे दामन से बिछड़कर नहीं मिला सुकून फिर,
आज भी ढूंढता हूं तुझे गली,बाज़ार कभी कभी।

तुझे किसने कहां?के खून थूका हैं तेरी याद में!
हा रोया तो हूं में छिपकर खून के आंसू कभी।

अब तुझसे और क्या करूं बयां तू ही बता?
एक हैं रंज दिल में वह अब नहीं फिर कभी।

© वि.र.तारकर.