"खाली कुर्सियों की गूंज"
कौन सुनेगा इन कुर्सियों की पुकार,
जो चुपचाप सहें हर रात और हर दुपहर।
कभी थी यहाँ हलचल, कभी हँसी के गीत,
अब रह गई हैं बस, ख़ामोशी की रीत।
इनके तले दबा हुआ है वक़्त का बोझ,
कभी बैठा यहाँ कोई, तो कभी रहा खोज।
पर आज ये खाली हैं, कहती हैं कहानियाँ,
गुज़रे वक़्त की, और बिखरी हुई जवाँनियाँ।
एक दौर था जब गूँजती थीं बातें,
जैसे बहार में खिलते हैं रँग-बिरंगे फुलवारों के नाते।
अब ये कुर्सियाँ हैं मौन,
जैसे किसी पुराने वादे का टूटा हुआ क़ानून।
खाली कुर्सियों से टपकती है तन्हाई,
जैसे बिछड़...
जो चुपचाप सहें हर रात और हर दुपहर।
कभी थी यहाँ हलचल, कभी हँसी के गीत,
अब रह गई हैं बस, ख़ामोशी की रीत।
इनके तले दबा हुआ है वक़्त का बोझ,
कभी बैठा यहाँ कोई, तो कभी रहा खोज।
पर आज ये खाली हैं, कहती हैं कहानियाँ,
गुज़रे वक़्त की, और बिखरी हुई जवाँनियाँ।
एक दौर था जब गूँजती थीं बातें,
जैसे बहार में खिलते हैं रँग-बिरंगे फुलवारों के नाते।
अब ये कुर्सियाँ हैं मौन,
जैसे किसी पुराने वादे का टूटा हुआ क़ानून।
खाली कुर्सियों से टपकती है तन्हाई,
जैसे बिछड़...