...

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गुज़र
किसी गुज़रे लम्हे ने फिर,
ज़हन के दरवाज़े को खटखटाया,
दरवाज़ा खुला तो एक बार फिर,
मैंने खुद को बिलकुल तनहा पाया।

जो भी गुज़रा वो खो गया,
कोई लम्हा वापिस न आएगा,
हर हसीन लम्हा अतीत हो गया,
अब कहां हमें सुकून आएगा।

ये दुनिया ऐसी ही है,
हर रोज़ वैसी ही रात,
कभी अपना ज़माना होता था,
अब होती है औरों की बात।

अपनी बातें कुछ दिनों में,
माचिस की तिल्ली सी बुझ जाएंगी,
फिर आने वाले किस्सों में,
नए ज़माने की झलक आएगी।

हम सहर में थे जन्मे,
शब को फना हो जाएंगे,
आए ज़रूर थे रोते हुए,
पर यकीनन मुस्कुरा के जाएंगे।
© Musafir