...

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सब झूठा था
उसका सच जान के भी, उसके झूठ को अंजानों की तरह सुन रहा था मैं,
उसका चेहरा, उसकी मासूमियत, सब झूठा था, मैं पहचान ही नहीं पाया उसको।

दिल की हर धड़कन में बसा था उसका नाम,
पर उसकी हकीकत को देख न पाया, और खुद को खोता चला गया मैं।

उसकी बातों में ऐसा जादू था, कि हर दर्द भूल जाता था मैं,
पर उसके फरेब का सामना जब हुआ, तब तक बहुत दूर जा चुका था मैं।

उसके झूठ की दुनिया में, मैं बस यूं ही भटकता रहा,
और सच्चाई का एहसास जब हुआ, तो खुद को ही खोता चला गया मैं।

© नि:शब्द

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