...

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ये बात सबको समझाता हूं
मैं अकेला बैठे बैठे जाने कहां हीं खो जाता हूं,
सभी दोस्त सामने हैं , फिर भी किसी को ढूंढने लग जाता हूं ।

चलते चलते, मैं न जाने कहां पहुंच जाता हूं ,
फिर तो बस इस मायावी भूल भुलैया में उलझा ही रह जाता हूं ।

फिर सामने दिख रहे उस मिराज को अपनी खोज समझने लग जाता हूं ,
जैसे ही थोड़ा समय बीतता है , मैं फिर अपने आप को अकेला पाता हूं ।

मैं चलते चलते , थक हार के , बहुत अधिक दूर निकल जाता हूं ,
वापस जाने की इच्छा तो बहुत होती है , पर फिर भी हिम्मत नहीं जुटा पाता हूं ।

उदास और बेबस होकर मैं खुदको एक कैद पंछी जैसा समझने लग जाता हूं,
फिर कुछ पुराने अच्छे दिनों को याद करते हुए मैं एकदम से रोने लग जाता हूं ।

मैं अपने आंसू पोछने के लिए अपना हाथ अपने चेहरे की ओर बढ़ाता हूं ,
आंसू पोछते हीं , मैं खुद को अपने ही कमरे में पाता हूं ।

ये क्या माया है , क्या लीला है, ये तो नहीं समझ पाता हूं ,
पर थोड़ा विचार करने पर मैं सब कुछ खुद ही समझ जाता हूं ।

खुशी और संतुष्टि को मैं ,अपने जीवन का हिस्सा बनाता हूं ,
अपना भला इसी में है , ये बात सबको समझाता हूं ।
अपना भला इसी में है , ये बात सबको समझाता हूं ।

~ रितेश
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