...

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कुदरत से जंग
समय का फेर कुछ ऐसा बदला
जो उड़ती थी फ़िज़ाओं में
आज जख्मी होकर गिरी थी

क्योंकि उसकी परीक्षा लेने स्वयं कुदरत आज खड़ी थी
हौसलों में शक्ति और सब्र की टूटी हर लड़ी थी
आज परीक्षा की घड़ी में कुदरत से जंग छिड़ी थी

टुटा था भरोसा पर जिद पे वो अड़ी थी
मुश्किल था सफर पर आन पर आ पड़ी थी
आर या पार कि एक भारी जंग छिड़ी थी
लड़ने की चाहत में वो धीरे से उठ खड़ी थी

उठते ही कुदरत ने फिर एक ऐसा जाल बिछाया
तोड़ने की चाहत में फिर से उसे सताया
जो खड़ी हुई लड़खड़ाकर उसे कुछ इस तरह गिराया
उस शान्त समुन्द्र में आज एक भारी तूफान आया

इरादों की नेकी में तूफानों से वो लड़ी थी
परीक्षा लेते लेते फिर कुदरत झुक गयी थी
जो कुदरत थी विरुद्ध उसके आज स्वयं उसकी हुई थी
फ़िज़ाओं से मिलाने आज पूरी कायनात जुट पड़ी थी
-----------हर्षिता अग्रवाल