...

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साथ रह कर भी हम तन्हा क्यों थे ?
साथ रह कर भी हम तन्हा क्यों थे ?
मिले अगर पल भर की भी फ़ुरसत,
तो ये सोचना ज़रुर।

इस चारदीवारी में बंधे रिश्ते तो एक हीं थे,
फिर भी दोनों के दिल थे क्यों कोसों दूर ?

ज़माने की लग गई थी नज़र ? या,
शायद किस्मत को हीं था ये नामंजूर।

ना तुम तैयार थे थोड़ा रुकने को,
ना मुझे हीं था दो क़दम चलना मंजूर।

उधर तुम बुन रहे थे शिकायतों का जाल,
इधर मैंने बना लिया था दीवार-ए-गुरुर।

अरे! जब हमने ख़ुद ही बुझा डाला चिराग़-ए-मुहब्बत,
तो भला इसमें क़िस्मत का क्या कसूर ?

साथ होकर भी हम तन्हां क्यों थे ?
क्यों खो गईं दो चहकते बुलबुलों की खुशियां ?
गुज़रा वक्त तो फिर लौट नहीं सकता,
पर ये सोचना ज़रूर.. पर ये सोचना जरूर।

© AK