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नभ की ओर निगाहें
" नभ की ओर निगाहें "(कविता)

कौन मिटा सके वह,
जो लिख चुका विधाता?
दुर्भाग्य,दाने-दाने से वंचित,
बस कहने को हूँ अन्नदाता।।

भूख से रक्षा करूँ मैं सबकी,
मेहनत करता,फसल उगाता।
विडम्बना,अन्नदाता स्वयं भूखा
कैसे नसीब लिखा तूने विधाता।।

रोटी,कपड़ा,मकान ज़रूरतें तीन,
निर्धन हूँ, तीनों से वंचित मैं दीन।
भूमि पर चलाता हल,पसीना बहाता
दुर्भाग्य,फिर भी निर्धन का जीवन बिताता।।

मेरी नभ की ओर करुणा भरी निगाहें,
आँखों मे आँसूं,दर्द के कारण भरूँ आहें।
याचना करूँ,हे सृष्टि के पालनहार....,
मेघ बन बरस जाओ,ले आओ खुशियों की बहार।।

हे कृष्ण !आज नए रूप में देखो सुदामा,
माँगने को विवश किसान पहन भिक्षुक जामा।
हे कृपासिंधु,मेघ बन अब तो बरस जाओ-
परिवार भूख से बिलख रहा,कृपा बरसाओ।।

व्यर्थ ही कहते सब मुझे अन्नदाता..,
जो स्वयं भूखा है,कैसी विडंबना, विधाता।
धरती ही नहीं मेरे जीवन मे भी पड़ा सूखा-
दुर्भाग्य,अन्नदाता स्वयं ही है भूखा...।।

ऋतुएँ प्रकृति की,प्रकृति ईश्वर की है देन;
हे ईश्वर,दुर्भाग्य मेरा,प्रकृति का मारा हूँ...।
गर्मी,सर्दी, बरसात सभी की मार मैं सहता-
कृपासिंधु,सच कहूँ मैं किस्मत का मारा हूँ।।

'नेहांश' इन्हीं वेदनाओं से पीड़ित किसान;
नभ की ओर निगाहें, ईश्वर से लगाता गुहार।
बनाये लाभकारी योजनाएं ,किसानों के हित में...
खुशहाल हो,समृद्ध हो अन्नदाता,देश की सरकार।।

साक्षर,सुशिक्षित होवें अन्नदाता देश के,
ताकि अब न हो देश के किसानों की दुर्गति।
अपने श्रम का उचित लाभ उठा पाएँ किसान..
क़ृषि के क्षेत्र में उन्नति पा सके देश का किसान।।

अब न हो दाने दाने से वंचित हमारा अन्नदाता,
अब न विवश हो आत्महत्या कर पाए अन्नदाता।
नभ की ओर किये हो निगाहें बेशक,निसन्देह-
पर रोती बिलखती नहीं बल्कि हो खुशहाल अन्नदाता।।

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नेहांश कुलश्रेष्ठ
उज्जैन, मध्यप्रदेश