मेरी मुझसे बहस
कल रात मेरी बहस हो गयी मुझ ही से
कि क्यों खुशियाँ खो रहा है तू खुशी से
कि जिन्हें कमी खलती नहीं तेरी ज़रा भी
क्यों आस लगाए बैठा है तू उस ही से
बहा दे ये समंदर जो आंखों में तूने रोका है
खुद को झूठी उम्मीदें देना भी तो धोखा है
जहाँ अब खुद का अक़्स तक नज़र...
कि क्यों खुशियाँ खो रहा है तू खुशी से
कि जिन्हें कमी खलती नहीं तेरी ज़रा भी
क्यों आस लगाए बैठा है तू उस ही से
बहा दे ये समंदर जो आंखों में तूने रोका है
खुद को झूठी उम्मीदें देना भी तो धोखा है
जहाँ अब खुद का अक़्स तक नज़र...