...

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ठोकर
हज़ारों की भीड़ लगी
उनमें मैं जलता रहा,
जलता रहा,
जलता कुछ इस कदर रहा,
बचा उनके लिए बस
एक राख था ।

जीता रहा दुनिया,
के लिए ।
अपना अस्तित्व खो कर मैं,
गिरता रहा, उठता रहा
खा कर ठोकर मैं ।

मेरी तबाही ही दुनिया की
पहली पसंद रही ।
नासमझ मैं,
पता नही क्यों आंखे मेरी
बंद रही।

जो चलता अपनी
मंज़िल को
सबने इस कदर रोका था,
वो हसी, वो मज़ाक,
वो प्यार, वो यारी।
किस्मत से मेरा धोखा था।

जबां पर नाम
भगवान का,
मन में काम पाप का,
सकल दिखता मासूम सा जो
पीठ पीछे, ज़हर ज़हरीले
साप का।
© kirti Deep