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एक वस्ल-ए-राहत का ख़्वाब था
एक वस्ल-ए-राहत का ख़्वाब था,
वो दफ़न हुआ उन कलियों में,
जिनकी तकदीर एक सर्द शहर की मशरूफ गलियों में महफूज़ थी..
राहगीरों की आहट सुनते थे,
उनके क़दमों की चाहत सुनते थे,
एक दिन कुचले गए उसके पैरों से,
तब वस्ल का एहसास हुआ..

उसे लगा यह हुस्न-ए-जमाल के आगे कौन कमबख़्त सिसकियां ले रहा है,
जब देखा तो क़दमों में कलियां बिछीं हुई,
मुझे पहली दफा ख़ुदा की खुदगर्ज़ी डगमगाती लगी,
उसने कलियों से पूछा उनकी बेकली का सबब,
भला कलियां कली को बेकली कैसे समझाती...

वो रंज-ओ-ग़म की सियाही, जो ख़्वाबों पर बिखरी थी, छूटने लगी..
उसके रुखसार का गेरुआ रंग कुछ यूं चढ़ने लगा जैसे मानो उसके पांव रंगरेज़ हों..

सिसकियां लेती कलियां अब ख़ामोश थी,
आंखों से ओझल हो रही थी वो तक़दीरें,
लेकिन, धीरे-धीरे वो ख़ामोशी उसे खलने लगी,
आखिर एक मारूफ़ शहज़ादी अपना कितना वक्त ज़ाया करती..
एक बे-अंजाम अफ़साना समझ कर उसने आगे बढ़ना सही समझा,
मानो जैसे जाड़ों की नर्म धूप तुम्हारे आंगन को छोड़कर जा रही हो ...

अरसे बीते, मुझे नहीं मालूम वो कलियां अपनी तक़दीर छिपाए कहां रहती हैं,
इतना जानता हूं, कि मैं जो पूछूं, तो ज़लज़ला आ जाए...
© Harf Shaad