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एक वस्ल-ए-राहत का ख़्वाब था
एक वस्ल-ए-राहत का ख़्वाब था,
वो दफ़न हुआ उन कलियों में,
जिनकी तकदीर एक सर्द शहर की मशरूफ गलियों में महफूज़ थी..
राहगीरों की आहट सुनते थे,
उनके क़दमों की चाहत सुनते थे,
एक दिन कुचले गए उसके पैरों से,
तब वस्ल का एहसास हुआ..

उसे लगा यह हुस्न-ए-जमाल के आगे कौन कमबख़्त सिसकियां ले रहा है,
जब देखा तो क़दमों में कलियां बिछीं हुई,
मुझे पहली दफा ख़ुदा की खुदगर्ज़ी डगमगाती लगी,
उसने कलियों से पूछा उनकी...