बचपन
सफलता के पीछे यूँ भागते भागते
अपनी मंजिल की दौड़ में सदा हांफते हांफते
हम अपना बचपन बहुत दूर छोड़ आए
साथ अपने बेचैनी और मायूसी जरूर मोड़ लाएं
वो बचपन की यादें,छोटी-छोटी फरियादें
वो मस्ती भरे दिन,वो मासूमी रोतें
सबको छोड़कर हम आगे बढ़ते गए
उन बचपन के अवशेषों पर खुद ही चढ़ते गए
आज जबकि हम सफलता की अनहद पर हैं
लगता है सदा कि जीवन की सरहद पर हैं
अब देखकर छोटे बच्चों को लगता है ये
जीवन के विभिन्न रंगों के साथ कितने फबते हैं वे
ईश्वर करें,ये वक़्त यहीं ठहर जाए
कोई बच्चा न घर छोड़कर,कभी शहर जाए
शहर जाकर शायद मिल जाएगा बहुतकुछ
मिलने पर भी बहुत,लूट जाएगा सबकुछ
बड़े होने पर माना बहुत पाओगे
पर वो बचपन जैसा सुकून कहां से लाओगे
शहर जाने पर गांव की याद आती रहेगी
ये चिंता,ये पीड़ा सब तुमको खाती रहेगी
सुलाने के लिए तो गांव में,मां सदा अपने पास बुलाती रही
बस उन्हें यादों के बलबूते शहर में मुझको नींद आती रही
धीरे-धीरे कमाने का जुनून उम्र के साथ जाता रहा
फिर से वही पुराना बचपन याद आता रहा
वो पुराने मित्र,वो उन सबकी यारी
उनको ही बस याद करते-करते बीत गई उम्र सारी
पहले चिंता की विद्यालय में अच्छे नंबर लाओ
फिर बोर्ड्स में अपना करतब दिखाओ
12वीं के परिणाम आने से पहले
पता चलता है कि यहां तो है नहले पर दहले
ग्रेजुएशन की प्रवेश परीक्षाएं कहती है कि हैसियत में रहले
कुछ साल और तू,अभी असफलता को सहले
आगे फिर विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने में मरते रहो
4 साल विश्वविद्यालय की किताबों को चरते रहो
फिर जब उत्तीर्ण हो जाओगे यहां से भी तुम
घर वाले फिर कहेंगे कि नौकरी तो कर ले,सुन!
फिर सफलताओं,असफलताओं को देखते-देखते
अपनी रुचि को यूं अनेकों दफ्तरों में फेंकते फेंकते
लग भी गई नौकरी कर तुम्हारी कहीं पर
नर्क का अनुभव तुम करोगे यहीं पर
उसके बाद भी जीवन में सुखी रहो,ये निश्चित नहीं है इच्छाओं को मारकर, जीवन जीना भी तो उचित नहीं है
फिर धीरे-धीरे उम्र तुम्हारी ढलती जाएगी
इच्छाएं फिर तुम्हारी सब गलती जाएगी
इच्छाओं को अपनी तुम फिर अपनी संतानों पर थोपोगे
उनको अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने से,अपने पिता के जैसे ही तुम रोकोगे
अपने हालात को क्यों इतनी जल्दी तुम भूल यूँ जाते हो अपने बच्चों के इच्छा रूपी फूल को,खुद स्वयं क्यों खाते हो
फिर उस समय याद तुम्हें बस अपना ही बचपन आएगा
कोई रंग भी ना तब तुम्हारे मन को भाएगा
यह मन तुमसे फिर सबसे अलग होने को कहेगा
फिर से एक बार अपने बचपन में खोने को कहेगा
फिर से एक बार अपने....................................
© प्रांजल यादव
अपनी मंजिल की दौड़ में सदा हांफते हांफते
हम अपना बचपन बहुत दूर छोड़ आए
साथ अपने बेचैनी और मायूसी जरूर मोड़ लाएं
वो बचपन की यादें,छोटी-छोटी फरियादें
वो मस्ती भरे दिन,वो मासूमी रोतें
सबको छोड़कर हम आगे बढ़ते गए
उन बचपन के अवशेषों पर खुद ही चढ़ते गए
आज जबकि हम सफलता की अनहद पर हैं
लगता है सदा कि जीवन की सरहद पर हैं
अब देखकर छोटे बच्चों को लगता है ये
जीवन के विभिन्न रंगों के साथ कितने फबते हैं वे
ईश्वर करें,ये वक़्त यहीं ठहर जाए
कोई बच्चा न घर छोड़कर,कभी शहर जाए
शहर जाकर शायद मिल जाएगा बहुतकुछ
मिलने पर भी बहुत,लूट जाएगा सबकुछ
बड़े होने पर माना बहुत पाओगे
पर वो बचपन जैसा सुकून कहां से लाओगे
शहर जाने पर गांव की याद आती रहेगी
ये चिंता,ये पीड़ा सब तुमको खाती रहेगी
सुलाने के लिए तो गांव में,मां सदा अपने पास बुलाती रही
बस उन्हें यादों के बलबूते शहर में मुझको नींद आती रही
धीरे-धीरे कमाने का जुनून उम्र के साथ जाता रहा
फिर से वही पुराना बचपन याद आता रहा
वो पुराने मित्र,वो उन सबकी यारी
उनको ही बस याद करते-करते बीत गई उम्र सारी
पहले चिंता की विद्यालय में अच्छे नंबर लाओ
फिर बोर्ड्स में अपना करतब दिखाओ
12वीं के परिणाम आने से पहले
पता चलता है कि यहां तो है नहले पर दहले
ग्रेजुएशन की प्रवेश परीक्षाएं कहती है कि हैसियत में रहले
कुछ साल और तू,अभी असफलता को सहले
आगे फिर विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने में मरते रहो
4 साल विश्वविद्यालय की किताबों को चरते रहो
फिर जब उत्तीर्ण हो जाओगे यहां से भी तुम
घर वाले फिर कहेंगे कि नौकरी तो कर ले,सुन!
फिर सफलताओं,असफलताओं को देखते-देखते
अपनी रुचि को यूं अनेकों दफ्तरों में फेंकते फेंकते
लग भी गई नौकरी कर तुम्हारी कहीं पर
नर्क का अनुभव तुम करोगे यहीं पर
उसके बाद भी जीवन में सुखी रहो,ये निश्चित नहीं है इच्छाओं को मारकर, जीवन जीना भी तो उचित नहीं है
फिर धीरे-धीरे उम्र तुम्हारी ढलती जाएगी
इच्छाएं फिर तुम्हारी सब गलती जाएगी
इच्छाओं को अपनी तुम फिर अपनी संतानों पर थोपोगे
उनको अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने से,अपने पिता के जैसे ही तुम रोकोगे
अपने हालात को क्यों इतनी जल्दी तुम भूल यूँ जाते हो अपने बच्चों के इच्छा रूपी फूल को,खुद स्वयं क्यों खाते हो
फिर उस समय याद तुम्हें बस अपना ही बचपन आएगा
कोई रंग भी ना तब तुम्हारे मन को भाएगा
यह मन तुमसे फिर सबसे अलग होने को कहेगा
फिर से एक बार अपने बचपन में खोने को कहेगा
फिर से एक बार अपने....................................
© प्रांजल यादव