पगडंडियाँ और पाँव के हक़
सूनी होकर भी
क़दमों की आहटें देतीं हैं
पगडंडियाँ
भीड़ से राहतें देतीं हैं
समयाभाव का कारण होतीं हैं
ये टेड़ी-तिरछी पगडंडियाँ,
जैसे दिल तक उतर जाते हैं
सहज स्वीकार्य व्यवहारिक रास्ते,
वैसे ही कच्चे रास्ते ही सहज सच्चे होते हैं,
मंज़िल की ओर निरंतर चलते,
न कोई सजावट न ही परतें,
जीवन की गलियों में फिरते हैं
ये अपने-आप बने रास्ते,
मोड़ पर रूकते, प्रतिक्षारत
कभी हाथों में लिए हाथ चलते
कभी तितलियों के पीछे भागते..
पाँव को हक़ दो हक़ीक़त में
ज़मीन से जुड़ने का, पगडंडी से मुड़ने का, वास्तविकता से चलने का...
--Nivedita
क़दमों की आहटें देतीं हैं
पगडंडियाँ
भीड़ से राहतें देतीं हैं
समयाभाव का कारण होतीं हैं
ये टेड़ी-तिरछी पगडंडियाँ,
जैसे दिल तक उतर जाते हैं
सहज स्वीकार्य व्यवहारिक रास्ते,
वैसे ही कच्चे रास्ते ही सहज सच्चे होते हैं,
मंज़िल की ओर निरंतर चलते,
न कोई सजावट न ही परतें,
जीवन की गलियों में फिरते हैं
ये अपने-आप बने रास्ते,
मोड़ पर रूकते, प्रतिक्षारत
कभी हाथों में लिए हाथ चलते
कभी तितलियों के पीछे भागते..
पाँव को हक़ दो हक़ीक़त में
ज़मीन से जुड़ने का, पगडंडी से मुड़ने का, वास्तविकता से चलने का...
--Nivedita
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