...

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तुम बिखरे हो
मेरे यादों के पन्नों पर , तुम बिखरे हो कई रंगों में !
हाँ , अब...तो...बस...तुम ही हो !
जो बिखरे हो |
कई रंगों में बिखरे हो|

कभी खुशी के खिले उभारों में, कभी उदासी की गहरी स्याही में,
मैंने डूबे देखे ख्याल उसके, जज्बात उसके, और वो..हँसी भी |
तुम अपने ही सोच विचारों में,
हाँ ! बिखरे हो कई रंगों में |

मैंने कैद किये कई पल , और कई लम्हें इन कागज पे,
अब तुमको कितना ? क्या ? और दिखाएँ क्या ?
इन आँखों के सहारों से?
"कभी तुम बैठे मेज किनारे हो ढ़लते सूरज को तकते हुए
कभी खड़े दिवार सहारे हो अपनी हँसी को ढ़कते हुए
कभी खड़े हो काशी की पावन गंगा में सुरज को नमन करते हुए
अौर कभी धर गार्भंय मौन संभाले हो सारी स्थिति को समझते हुए"
हाँ तुम कई रंगों में बिखरे हो |

"कभी मेरी कलम पे आ, मेरे शब्दों से छेड़खानी करते हो
कभी आँखों में आँखें डालके शरारत से बेईमानी करते हो
कभी पकड़ के हाँथ मेरा मुझको कहीं दूर ले जाते हो
और कभी मेरी हद में आ ह्रदय स्पंदित कर जाते हो"
मेरे मन की तंग दिवारों पे... तुम बिखरे हो !

हाँ ! कई रंगों में बिखरे हो|

"कभी सुबह की धूप के जैसे तुम मुझ पर झुकते हो
कभी बारीश बन मेरी सांसों में सौंधी खुश्बू सी घुलते हो
कभी बसंत की बहारों संग खुशियों में मेरे मन में झुमा करते हो
कभी पतझड़ के मौसम में मुझ संग उजड़े दामन चुनते हो
और कभी ठंडी के मौसम में मेरे हाथों पे बर्फ से पिघले हो|"
हाँ ! तुम कई रंगों में बिखरे हो |

मेरे यादों के पन्नों पर.....कई रंगों में...
तुम बिखरे हो |




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