...

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वो दौर आशिक़ी का..
वो दौर आशिक़ी का हम दोहरा न सके !
फिर किसी और को ये दिल थमा न सके !

ग़म-ए-फ़ुर्क़त में था कुछ सैलाब इतना,
डूब ही जाते हम सो आँसू बहा न सके !

इक मरासिम ने दिल ऐसा ज़ख़्मी किया,
राब्ता फिर किसी से हम बढ़ा न सके !

तन्हा रहने की हम को ‌ऐसी आदत लगी,
अपना चाह के भी घर ‌हम बसा न सके !

दिल तो अपना भी था मोम-सा ही नरम,
बस प्यार अपना कभी हम जता न सके !

हम कट्टर भी उन को हमेशा आये नज़र,
सख़्ती जिनको कभी हम दिखा न सके !

अपनी निगाहों से ज़ाहिर सदा होता रहा,
राज़ कोई इनमें गहरा हम छुपा न सके !

क्या ही कहें "परस्तिश" ज़माने को हम,
हम तो ख़ुद ही को कभी समझा न सके !
© parastish
ग़म-ए-फ़ुर्क़त - बिछड़ने का दुःख

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