...

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जाते जाते
चलते चलते कैसे बीत गया साठ साल
युवा रूप में आया था अब गढ्ढे हैं गाल
दिन रात मे रात दिन में बदलते रहे
महीने साल में यूं ही ढलते रहे
अपनी धुन में चलते रहे अपनी चाल
चलते चलते........

कर्म को जीवन का आधार माना
घर परिवार office को संसार माना
देश हित में जब भी जरूरत पड़ी
कर्तव्य को सबसे बड़ा कारोबार माना
मौसम कैसा भी हो खुद को रखा खुशहाल
चलते चलते.....

संगी साथी का भरपूर सहयोग मिला
मार्गदर्शक सीनियर्स का भी संजोग मिला
डटा रहा कर्तव्य पथ पर अनवरत
कभी सुखद अनुभूति कभी वियोग मिला
जा रहा अब छोड़कर कोई नहीं मलाल
चलते चलते.......

कल से मेरा क्या काम होगा
शायद एक नया आयाम होगा
नए जीवन में क्या ढल पाऊंगा
अपने को इतनी जल्दी क्या बदल पाऊंगा
विचर रहा है मन में अब यही सवाल
चलते चलते.......




© शब्द सारथी