आजादी
पिंजरा पिंजरा कर मैं रोता रहा,
परंपरा सामाजिक मान्यता का चादर ओढ़ सोता रहा।
देख भेदभाव स्त्री पुरुष में रीति रिवाजों में समयानुसार बदलते रंग जमाने में ठगा मन कल्पनाओं में खोता रहा।
इतने में आया कोई मास्टरमाइंड (आचार्य जी)
नजरिया नयी दी क्या तुम गीत बेकार है गुनगुनाता है
ले गीता उपनिषद के पंख लगा उड़ जा बनके पक्षी
तुम नहीं कोई कंप्यूटर मशीन,...
परंपरा सामाजिक मान्यता का चादर ओढ़ सोता रहा।
देख भेदभाव स्त्री पुरुष में रीति रिवाजों में समयानुसार बदलते रंग जमाने में ठगा मन कल्पनाओं में खोता रहा।
इतने में आया कोई मास्टरमाइंड (आचार्य जी)
नजरिया नयी दी क्या तुम गीत बेकार है गुनगुनाता है
ले गीता उपनिषद के पंख लगा उड़ जा बनके पक्षी
तुम नहीं कोई कंप्यूटर मशीन,...