...

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ढलती उम्र से
उम्र की दहलीज से, ढल रहे दिन को जिंदगी निहार रही थी ऐसे...
दिन की तपिश को समेटे, इक सकून की शाम को, रूह पुकार रही थी जैसे...

स्याह से आसमान से इक मनमौजी सा बादल, हवा के झोंकों से अपनी और ले चला...
रोम रोम में मुहब्बत से लिपट के मेरी हस्ती खुद को श्रंगार रही थी ऐसे....





© कविता खोसला