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ज़िंदगी का मतलब
न होती ये ज़िन्दगी, न उसका मुब्तला होता,
न होते हम खुश-फ़हम, न जीने का गिला होता.

न मानते कोई दायरे, न जुड़ते हम किसी से,
कोई बेजां-सी शय होते, न दर्द का सिलसिला होता.

लगाने न होते शजर कहीं, न पोसना होता उन्हें,
न फ़िक्र होती बाग़ की, न फूलों का हौसला होता.

न तोहमतें न मोहब्बतें, न मुसीबतें न हिकायतें,
होता वो बे-रंग ही, जो ज़ीस्त का काफ़िला होता.

न होती दरकार किसी को खुशियां देने की हमें,
न हयात-ए-फ़ानी में किसी और का दाख़िला होता.

रिश्ते निभाना भी किसी से बोझ लगता हो जिन्हें,
ऐसे जो बशर न होते, न रिश्तों का ये सिला होता.
© अंकित प्रियदर्शी 'ज़र्फ़'
मुब्तला - कष्ट या विपत्ति में पड़ा हुआ; दुख, संकट आदि से ग्रस्त, व्यस्त (overtaken by suffering, afflicted, involved)
खुश फ़हम - अच्छी उम्मीद रखने वाला (hopeful, optimistic)
शजर - पेड़ (plant, tree)
तोहमतें - जूठे और व्यर्थ आरोप लगाना (slander, false allegation or accusation)
हिकायतें - बात, वृत्तांत, हाल (narrative, anecdote)
ज़ीस्त - ज़िंदगी (life)
हयात-ए-फ़ानी- नश्वर जीवन (mortal life)
बशर - इंसान (human)
ये नज़्म उनके लिए जो इंसान बन के दुनिया में आ तो जाते हैं, पर इंसान के फ़र्ज़ और ज़िम्मेदारियों से डरते हैं. ज़िंदगी का हर मोड़ चुनौती भरा होता है और ऐसी मुश्किलों से जूझना ही तो ज़िंदगी है. आपको क्या लगता है?
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