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वो बचपन का दौर 💗
#स्मृति_कविता

एक दृश्य था वो सुहाना सा
जब वक्त पर मैं घर आया करता था
सुबह शुरू होती थी नई उम्मीदों के साथ
और शाम भी अपने साथ एक सपना लाया करता था
वो दौर था मेरे बचपन का
जब मैं अपने दोस्तों के साथ स्कूल जाया करता था

दिन भर बेवजह ही होंठो पर मुस्कान बनी रहती थी
शाम होते ही आ जाया करते थे कई दोस्त घर पर
और फिर एक पार्क में मस्ती की वो शान सजा करती थी
ना सिगरेट जली कभी ना ही दारू के जाम चले
पर फिर भी ना जाने किस खुशी में पूरी टोली झूम लिया करती थी

वो दौर था की मां भी घर आने का रास्ता देखती रहती थी
अब आयेगा अब आयेगा ये सोच कर गरमा गर्म वो रोटियां सेकती रहती थी
हो जाऊं अगर मैं थोड़ा देर देर कभी
तो कभी पकड़ती कान मेरे तो कभी झाड़ू चप्पल मेरे फेंकती रहती थी

हो जाऊंगा बड़ा एक दिन मां मैं अक्सर उससे कहता था
छोड़ जाऊंगा एक दिन ये सारा घरबार मैं अक्सर उससे कहता था
तू लड़का है तू भी घर छोड़ेगा मां रोती थी और कहती थी
मुझे डांट कर ना जाने कितना दर्द वो खुदके के मन में सहती थी
ये सहते कहते ही बचपन बीत गया
वो मां का दुलार वो बाप का मार सब कुछ पीछे छूट गया

जब बड़ा हुआ तब ज्ञात हुआ
यहां सब कुछ पैसे पर चलता है
ना रिश्ते बचते है गरीबी में ना ही दोस्ती
यहां तो बचपन में हर इंसान भर्म में पलता है

सब खत्म हुआ है मैं बड़ा हुआ
जब मैं अपने पैरो पर खड़ा हुआ













© ठाकुर जी