प्रतीक्षा
इन लाल ईट की सीढ़ियों पर पहरों बैठना
और दूर क्षितिज तक फैली गंगा के आंचल में
सूरज का वापस डूबना
फिर उस मखमली बैगनी आकाश में सफेद चांद
के निकलने तक
मंदिर के कपाट खुलने से मंदिर के कपाट
बंद होने तक
मैं यहीं बैठती इन्ही लाल सीढ़ियों पर
कभी ऐनक को आंखो से उतारते
अपने आंचल से आंखे पोछते
फिर खोलकर वो भूरी सी डायरी
में लिखती चंद बातें
कुछ होती कुलबुलाहट...
और दूर क्षितिज तक फैली गंगा के आंचल में
सूरज का वापस डूबना
फिर उस मखमली बैगनी आकाश में सफेद चांद
के निकलने तक
मंदिर के कपाट खुलने से मंदिर के कपाट
बंद होने तक
मैं यहीं बैठती इन्ही लाल सीढ़ियों पर
कभी ऐनक को आंखो से उतारते
अपने आंचल से आंखे पोछते
फिर खोलकर वो भूरी सी डायरी
में लिखती चंद बातें
कुछ होती कुलबुलाहट...