...

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गुजरी हैं।
कभी चाहत में गुजरी,कभी इबादत में गुजरी हैं,
ज़िंदगी तो हमारी तन्हा ए रफाक़त में गुजरी हैं।

वह जो लोग समझते हैं पत्थर दिल,आवारा हमें,
कोई कहें उनसे एक शाम गहरी मोहब्ब्त में गुजरी हैं।

यह जो मैं रहता हूं गुमनाम अपने ही शौक़,ख़्वाब में,
कैसे बताऊं इक उम्र इक शक्स की आदत में गुजरी हैं।

वह एक पल जब तुम मुझे चाहते थे बेइंतेहा,बेवजह,
मेरी सारी ज़िंदगी बस उस एक पल ए राहत में गुजरी हैं।

उससे मुझे कुछ न रहा गिला,न रही कभी कुछ खामियां,
हां यह बात अलग हैं के सारी ज़िंदगी शिकायत में गुजरी हैं।

तुम एक बार पूछने तो आते मुझसे बात सच या झूठी,
यह बिछड़न भी हमारी न जाने कैसी रिवायत में गुजरी हैं।

© वि.र.तारकर.