...

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/ग़ज़ल :और उस कारगर का हुनर छिन गया/
२१२ २१२ २१२ २१२

इक चहकता सुहाना सफ़र छिन गया
मंजिलें लुट गईं राहबर छिन गया

कहने को पेड़ काटा गया है मगर
चहचहाते परिंदों का घर छिन गया

ये तो बेटी है पढ़ कर ये क्या पाएगी
ख्वाब उसने सजाया मगर छिन गया

इस दिवाली पे दीये बिके ही नहीं
और उस कूज़ागर का हुनर छिन गया

है इमारत जहाँ एक चौपाल थी
मेरे पुर्खों का दर था मगर छिन गया

लाज़मी है हवाओं का रोना जहाँ
बन गया है मकाँ पर श़जर छिन गया



बह्र : 212 212 212 212
(मेरी सर्वप्रथम ग़ज़ल)

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© 'शम्स'