...

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आदमी
कोई आया झुंझलाहट में आया क्या लाया? दर्द! घमण्ड ! अभिमान! या परिवर्तन या फिर कोरा दिखावा कभी आत्मग्लानि से भरा कभी हौशलो की गवाही सा देता कभी सूखे पत्तों सा खडखडाता कभी स्वयं को निहारता कभी संतुष्टि का झूठा घूंट सा पीता न जाने किस पंथ का पथिक है? किस सफर पर जाना है? आगे दिवारे लगी है असीम, लक्ष्यहीन, वातायनहीन जिसमें नयी फिजा भी न कर पाये अपना प्रवेश ऐसा पथिक कहां आसरा पायें?
© Pramod Kumar