...

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क्या लिखूं!
शून्य हृदय में कविताओं का थम गया है अब तो गौरव गान।
शब्दों के दृढ़ संकल्पों का क्षण भर में टूटा अभिमान।
सरस सलिल सुंदर वाणी का श्रवण न करते अमृतपान।
सुमन सरिस मधुमय छंदों के छित विक्षित परिचित प्रतिमान।
जो बहार बन वर्षा गावें उन कवियों के सभागार में नहीं रहा मेरा स्थान।
कागज कोरे बंद पड़े हैं, कलम पड़ी हो कर बेजान।
बोलो क्या लिख दूं मृत मन से रख लूं आज सभा का मान।
वर्षा का मौसम, बूंदें बस अटकी, शांत मेघमय आसमान।
या पन्नो पर लाकर भागीरथी को लिख दूं कोई कीर्तिमान।
किंतु शांत है मन इतना जैसे आने वाला हो तूफान।
इतना अचेत मन कभी नहीं था,
न था खुद से इतना अनजान।
है कृंदन, है मौन, है पतझड़ की आवाज गूंजती।
शून्य हृदय में कविताओं का थम गया है अब तो गौरव गान।
© Prashant Dixit