...

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सुनहरा बचपन - कहां गए वो दिन…
कहाँ गए वो दिन....

जब मां की लोरियों में ही सो जाते थे।
अब तो नींद की गोलियां,
खाकर भी आंखों में नींद नही आती।
अब कहाँ गयी नींद वो बचपन की....

कहाँ गए वो दिन...

जब सर पर मां के हाथ फेरने से सारे दुख दर्द दूर हो जाते थे।
अब तो दिन दिन भर,
मसाज करवाने से भी आराम नही मिलता।
होती थी हर दवा हमारे उलझन की...

कहाँ गए वो दिन...

जब मां के आंचल को पाकर देवेन्द्र सा सुख पाते थे।
अब तो फूलों और मखमल की सेज नही भाती है।।
कहाँ गयी वो सेज हमारे बचपन की....

कहाँ गए वो दिन..........

तुतलाना, हकलाना, रोना, फिर हँसना।
छोटे बड़ों से लड़ना, झगड़ना, फिर मिलना।।
चिढ़म चिढाई वो मेरी भाई बहन की...

कहाँ गए वो दिन....

कलम, वोदका, हाथ में माँ के वो डंडा।
गुस्सा थोड़ा, प्यार वो माँ का हथकंडा।।
न चिन्ता फिक्र कोई इस जीवन की...

कहाँ गए वो दिन....

कॉपी, कलम, किताब लिए पहुंचे स्कूल।
मुर्गा बनना पड़ता होती जरा सी भूल।।
वो लिखा पढ़ी चिंता विद्यार्थी जीवन की...

कहाँ गए वो दिन.....

सफर अकेला देख कदम रख डरते हम।
वक्त से खाते मात फिर भी अब लड़ते हम।।
जिम्मेदारी के बोझिल इस जीवन की....

कहाँ गए वो दिन....

प्रशान्त कुमार पी.के.
पाली - हरदोई(उ.प्र.)

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