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मैं और मेरी तन्हाई
तन्हाई
तन्हा मुसाफ़िर, तन्हा सफ़र था, न साथी कोई, न कोई हमसफ़र था I संकरी थी गलियाँ,हर तरफ अँधेरा,अनजान राहें, गुम हो जाने का डर था I कहीँ ऊँची, कहीँ नीची थी राहें, कहीँ थे पर्वत, कहीँ गहरी थी खाइयाँ!
ख़ामोश मंज़िल थी, ख़ामोश राहें, दिख न रही थीं कहीं कोई परछाइयाँ I गिरी पर गिर कर संभलती रही, कहीं रुके न क़दम, मैं चलती रही I सफ़र की तंग अँधेरी डगर पर, उम्मीद का एक चिराग़ जलता रहा I घने जंगलों से गुज़री जब राहें, और हवाओं की सन सन डराने लगी I एक उजली किरन की रोशनी में, एक कुटिया हमे नज़र आने लगी I किसी ने दी आवाज़ हमको, चले आओ, यह घर तुम्हारा ही है I कब से बैठा हूँ मैं नज़रें बिछाए, ख़ुद के बिना ख़ुदा भी बेसहारा ही है I मैं और मेरी तन्हाई ( राज )