...

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जिजीविषा
जब भी मैं तुम्हारे ठहरे हुए
अवचेतन मन में यादों के कंकड़ फेंकता हूँ
तुम जलतरंगों की तरह मेरे समीप आने का
अथक प्रयास तो करती हो लेकिन मर्यादा
की समीर हमेशा तुम्हें विफल कर देती है
और देखते ही देखते मेरे दृगनयनों से
ओझल हो जाती हो फिर भी मैं तुम्हारे मन
के मानसरोवर के किनारे नियमित बैठता जरूर हूँ और पुनः यादों के कंकण फेंकता हूँ
वो भी इस आस के साथ शायद कोई मेरी
याद तुम्हें मेरे समीप तक ले आये
तुम आने का प्रयास करती रहो
और मैं तुम्हारे आने की आस
कभी रूकना नहीं थकना नहीं
हम लोगों को परस्पर प्रेम में जीने की
जिजीविषा है
तुम देखना एक दिन ईश्वर भी कह देगा
एवमस्तु

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