अन्तर्मन
यूं भटकते दर भटकते मूंद ली आँखें
कि जैसे भूल अपनी न दिखाई देती
खिल उठे हैं चेहरे कुढ़ते हुऐ वो
आवाज़ जिनको मेरी ना सुनाई देती
गन्ध आती है हाथों से उनके
मलने लगे थे जिनमें आबरू खुद की
बेढंग सी भलाई जाे कसी शिकंजे में घमंड के
इठलाती इतराती सजी संवरी मखमली सी
कुटिलता के मद में चूर इंसानियत भी अब
मतलबी रंगों में रंगी है दिखाई देती।।
© InduTomar