...

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चल उठते हैं।
बहुत ढूंढ़ लिया है हाथों को
चल खुद ही कदम बढ़ाते हैं।

क्यों सोच रही है गलियों को
खुली सड़क पे दौड़ लगते हैं।

बहुत देख चुके हैं लोगों को
चल अब हम कुछ कर के दिखाते हैं।

बस रह चुके खयालों में डूबे
चल हकीक़त में जी जाते हैं।

दुनिया के ठेकेदारों से
अपनी हैसियत मनवाते हैं।

चल बहते दरिया के संग
आगे का सफ़र बढ़ाते हैं।

बन के पंछी खुली फिज़ा में
बड़ी दूर तक मंडराते हैं।

जिनकी सोचों ने हमें महदुद किया
उन्हें आसमान की सैर कराते हैं।

बहुत जीता लिया है किस्मत को
चल उसको ही आज हराते हैं।

बहुत ढूंढ लिया है हाथों को
चल खुद ही कदम बढ़ाते हैं।
© fayza kamal