ग़ज़ल
२२१-१२२२//२२१-१२२२
पत्थर के मकीं देखे शीशे के मकानों में
इंसान भी होते हैं क्या ऐसे घरानों में (१)
मिट्टी में कभी जिसने पौधा न लगाया हो
कहता है उगाएगा वो फूल चटानों में (२)
बेहूदा सवाल ऐसा पूछा न करो हमसे
क्यों प्यार नहीं मिलता नफ़रत की दुकानों में (३)
अफ़वाह उड़ी जब से हैं टूट पड़े देखो
मिलता है बहुत सोना पत्थर की खदानों में (४)
दिन -रात यहाँ मैं भी बस चीखता रहता हूँ
आवाज़ पँहुच जाए उसके भी...
पत्थर के मकीं देखे शीशे के मकानों में
इंसान भी होते हैं क्या ऐसे घरानों में (१)
मिट्टी में कभी जिसने पौधा न लगाया हो
कहता है उगाएगा वो फूल चटानों में (२)
बेहूदा सवाल ऐसा पूछा न करो हमसे
क्यों प्यार नहीं मिलता नफ़रत की दुकानों में (३)
अफ़वाह उड़ी जब से हैं टूट पड़े देखो
मिलता है बहुत सोना पत्थर की खदानों में (४)
दिन -रात यहाँ मैं भी बस चीखता रहता हूँ
आवाज़ पँहुच जाए उसके भी...