...

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मैं नारी हूं।
बहुत अंधेरा है यहां
मुझे डर लग रहा है,
कहीं गहराई से
आवाज़ें आ रही हैं,
कोई ख्याल तंग कर रहा है।
कोई कह रहा है
तू अकेली है,
बहुत बेरहम है ये जहां।
कोई कह रहा है
नहीं चल सकेगी तू
बहुत कांटे उगे हैं यहां।
एक बात ये भी आईं
मेरे कानों तक
लड़की है तू,
नहीं जा सकती अपनी बगल की दुकानों तक।

माना बहुत कमज़ोर हूं मैं
डर जाती हूं ज़रा चिल्लाने पर
कोई गर इक थप्पड़ लगा दे
बह जाते हैं आंसू रुखसारों पर।
सब सच है, हां सच है
हूं मैं ऐसी।
खोजी बड़ी मुश्किल से
मेरे वजूद की ये सब परिभाषाएं,
लेकिन ओ ,जहां वालों!
कहां ये पूरा सच है।
मैं रोती हूं, मैं डरती हूं
क्यूंकि मैं ,अपनों पे मरती हूं
खुद से ज़्यादा हर रोज़
दूसरों के लिए आहें भरती हूं।
मैंने कहां कभी सोचा था
खुद के लिए सिर्फ जीने का।
मैंने कहां ये सोचा था
सब छोड़ के आगे बढ़ने का।
देखो अब मैं चलती हूं
पूरी तरह से खुलती हूं।

अब तुम मुझ को फिर समझो
चट्टान कहो,बारूद कहो,
या कहो मैं बहता दरिया हूं।
मैं क्या हूं तुम समझो अब
कुछ नया नाम तलाशो अब।
अब सामने मैं आती हूं
अपना किरदार निभाती हूं,
चुप चाप सहने की बजाए
मैं भी आवाज़ उठाती हूं,

अब तुम सोचो मै हूं कौन?
क्या क्या मैं कर सकती हूं

ना हूं मैं कोई छूई मुई
ना हूं कोई नाज़ुक सी कली,
मैं आग में तपते लोहे की तरह
इस जहान की ही "नारी "हूं।
Fayza.
© fayza kamal