...

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!... तुम हो ना...!
नहीं हूं मैं काबिल ए इमामत के, मुझे है शोक पेशवा ए रिंद होना
दो घड़ी का मेहमान हूं तेरी बनी दुनियां में, फिर यहीं मर के रेत होना

आरजू ए दुनियां में मोहब्बत का दावा है गुनाह, कुफ्र है यहां आशिक होना
लैला लैला न कर होश में आ गाफिल, अभी और भी मकां हैं इश्क़ में होना

चश्म ए बिना से छुपा रखा है खुद को, ऐसी आंखों से अच्छा था कि अंधा होना
पर्दा दर पर्दा है दरमियान ए हस्ती पर, चार ओ शू तू हैं फिर क्या छुपा होना

शेख़ ने रखा है बगल में हुबुल ओ हुज्जा, देखकर खिरद ने कहा गुम होना
कितने बुझदिल हैं बता तेरे शहर के बाशिंदे, देखकर चुप है यहां तुम होना

खूब किया सजदा रहा दिल मेला, ऐसे सजदो से अच्छा था ब्राह्मण होना
आह! हां, चलो अच्छा हैं समझ आ ही गया, अब कहा मुमकिन है यहां इंसा होना

© —-Aun_Ansari