यथार्थ
चलना, चलना सिर्फ चलना, यही जीवन फलसफा, आंख से गिरते है आंसू, दिल में उठता है धुआँ, बेचैन अन्तर्मन मेरा है, उड. रही अब खाक है, मौन है मौनी-सा मन, अब न किसी से कुछ गिला, भाव है भावना के, भावना बनती नही, बहॅ गया क्यों आदमी? आदमी के फेर में, चार दिन की चाॅदनी है, फिर घनेरी रात है, फिर वही सूना है चूल्हा, फिर वही तकदीर सूनी , कब कटेगा गहन तम यह?
© Pramod Kumar
© Pramod Kumar