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हे भारती
भारत का इतिहास स्वर्णिम है। ज्ञान के क्षेत्र में पूरा विश्व भारत का ऋणी है।
इसी पर तो विज्ञान का ढांचा टिका हुआ है। भारत का सौंदर्य सबको अपनी ओर आकर्षित करता है। भारत की विविधता को दर्शाती मेरे प्रथम काव्य संग्रह 'अनछुई पंखुड़ियाँ' से ली गई यह कविता 'हे! भारती'

दसों दिशाओं में गूंज रहा, हे भारती! तेरा गुणगान।
इस सकल विश्व में पोषित, होती एक देव सन्तान।

रजत मुकुट से आच्छादित, मोहनी मूरत तुम्हारी।
उमड़-उमड़ कर सागर लहरें, चरण छुए तुम्हारी।
पक्षी धरणी पर सुरम्य वाद्य, हैं सुनाते सुबह-शाम।
दसों दिशाओं में गूंज रहा, हे भारती! तेरा गुणगान।।

पूर्व में रवि भी लालिमा से, श्रृंगार तुम्हारा करता है।
पश्चिम में गोधूलि वेला में, स्वर्ण की गागर भरता है।
गंगा, गोदावरी, सरस्वती, और पावन हैं चारों धाम।
दसों दिशाओं में गूंज रहा, हे भारती! तेरा गुणगान।।

भारत जैसा सुंदर देश, इस विश्व में और कहीं नहीं।
विभिन्न भाषाओं का संगम-स्थल, ऐसा कहीं नहीं।
आदर भूमि सत्कार और, सेवाभाव है इसकी शान।
दसों दिशाओं में गूंज रहा, हे भारती! तेरा गुणगान।।

भक्ति की अजस्त्र धारा के, दिव्य तीर्थ स्थल हैयहाँ।
अमन, प्रेम, त्याग और, बलिदानों की भूमि है यहाँ।
मिट्टी की खुशबू पर करते, नाज़ देश है हमारी शान।
दसों दिशाओं में गूंज रहा, हे भारती! तेरा गुणगान।।

वैष्णो खत्री वेदिका जबलपुर ( मध्यप्रदेश )©®सर्वाधिकार सुरक्षित.