साज और आवाज़
कोई ख़्वाब आंखों में जगाऊं तो कैसे,
कि सूने से दिल में फ़साने हैं कुछ ऐसे,
दरख़्तों के साए में गुजरे थे जो मंज़र,
कि नामोनिशां भी उनका मिटाऊं तो कैसे,
लबों की वो थर-थर, वो रूहों की जुंबिश,
कि उनको ज़हन से हम भुलाएं भी तो कैसे,
फिज़ा में वो...
कि सूने से दिल में फ़साने हैं कुछ ऐसे,
दरख़्तों के साए में गुजरे थे जो मंज़र,
कि नामोनिशां भी उनका मिटाऊं तो कैसे,
लबों की वो थर-थर, वो रूहों की जुंबिश,
कि उनको ज़हन से हम भुलाएं भी तो कैसे,
फिज़ा में वो...