...

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पुरुष कहां आराम कर पाते हैं
घर से निकल कर,
घर ही तो बनाते हैं
पुरुष कहां आराम कर पाते हैं।

छोटा कद, रंग सांवला ,कच्चा घर,
न जाने
कितनी कसौटियों पर तौले जाते हैं,
पढ़ना भी जरूरी है जनाब
यहां नौकरी न मिलने पर
पुरुष भी ठुकराए जाते हैं।

और कहां मिलती है नौकरी
अपने गांव में कूबे में,
वोआधुनिकता की दौड़ में
अपनी जड़ों से भी दूर हो जाते हैं
और मां बाप की सेवा तो
बस बेरोजगार ही कर पाते हैं।

भटकते हैं, कड़ी दोपहर में
अंजान सड़कों पर
ना जाने कितनी जिम्मेदारियों का बोझ,
अपनी पीठ पर लादे
और कितनों की आशाएं
अपने पैरों पर बांधे,
चंद सिक्कों को कमाने में
वो चैन से सो भी कहां पाते हैं।

बचपन ,जवानी ,बुढ़ापे
हर उम्र में ,
अपनी सारी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हैं
अपने सुख तो बांटते हैं सबसे
पर दुख में वो रो भी कहां पाते हैं
पुरुष कहां आराम कर पाते हैं।।