...

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पलायन
घर को जा रहा कोई उम्मीद को समेट कर,
रो रही है राहें, दशा अपने पथ की देखकर।
थक गई है जिंदगी, किससे अपनी व्यथा कहें,
रो रहा है गांव अब, खुद को शहर में भेजकर।।

कुछ है भाई, कुछ बहन, कुछ मां, कुछ बेटियां,
ढूंढने निकले थे जो, शहर में अपनी रोटियां।
हजारों मील चल लिए घर का कोई पता नहीं,
सुधर रहा है देश, कहती राजनैतिक बोलियां।।

भटक रहा है देश, क्या प्रवास का ये अंत है,
या शहर में आज भी संभावना अनंत है।
का के का बिगड़ रहा, जा पे बीते ता ही जाने,
सत्ता की क्या बात, कोई फकीर कोई संत है।।