एक चेहरा खामोशी का
कभी खिल जाती हूं धूप में भी
कभी छांव भी झुलसा जाती है,
कभी भीड़ में भी तन्हा होती हूं,
तो कभी तन्हाइयों में भीड़ की तलाश,
कभी ढेर सारी बातें करने को
एक साथ चाहती हूं,
तो कभी खामोशी में
सब कुछ कहना चाहती हूं,
जाने कैसा एहसास है ये,
हर पल कुछ अधूरा _सा महसूस करती हूं,
ये कैसा एहसास है जो
हर पल कुछ ऐसा कर...
कभी छांव भी झुलसा जाती है,
कभी भीड़ में भी तन्हा होती हूं,
तो कभी तन्हाइयों में भीड़ की तलाश,
कभी ढेर सारी बातें करने को
एक साथ चाहती हूं,
तो कभी खामोशी में
सब कुछ कहना चाहती हूं,
जाने कैसा एहसास है ये,
हर पल कुछ अधूरा _सा महसूस करती हूं,
ये कैसा एहसास है जो
हर पल कुछ ऐसा कर...