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पर्दा
पर्दा
परदा...... जिससे जीवित है दुनियादारी
वो परदा जिसके पीछे छिपा दिये स्त्री के सपने
जो भीगा पड़ा है उसके आँसुओं से
जिसकी ओट में काट दिये गये उसके पँख
हाँ बस जिंदा रखी गई सभ्यता और संस्कारों की पोथियाँ
काश कहीं वो परदा पुरुष की नज़रों के लिए भी होता
परदा शर्म और सम्मान का
इज़ाज़त ना होती उसको यूँ बेपर्दा झाँकने की
ना यूँ नजरों से छलनी होता मान नारी का
कुछ पंख उसके भी शायद उड़ान भरते
हाँ... काश वो परदा पुरुषों के अपराधों पर न डाला होता
तो आज बेखौफ पलती खेलती वे कलियाँ आँगन में
स्त्री को परदे की सभ्यता सिखाने वाले क्यूं भूल गये
जिस्म तो माँ ने बहन ने पत्नी ने परस्त्री ने एक ही पाया है
क्यूं माँ के आँचल के लिए भक्ति
बहन के आँचल के लिए सम्मान
पत्नी के आँचल के लिए मान
और परस्त्री के आँचल के लिए हवस.????
काश कुछ परदे पुरुष की नजरों के लिए भी होते
कुछ सभ्यता उनके लिए भी जिंदा रखी जाती..


© Garg sahiba