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हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा शत्रु कोन?????
___________________article by Rajeev
किसी भी भाषा के साहित्य को जिंदा रखने की जिम्मेदारी सिर्फ लेखकों के कंधे पे नही होती है आप पाठकों और उसभाषी के लोगों पे भी होती है .... इसीलिए आपको अपनी मातृ भाषा की किताबों को खरीदकर पढ़नी चाहिए .. ऐसा नही है की आपके नही खरीदने पर वो लेखक भूखे मर जायेगा बल्कि आपकी भाषा का स्तर गिर जाएगा.. वैसे भी लेखक कभी आपसे अपनी किताबें खरीदने के लिए नहीं कहता है , क्योंकि वो तो किताबें लिखकर बस अपनी कलम का धार तेज कर रहा होता है , अपनी इच्छा पूरा कर रहा होता है .. उसे आपके किताब खरीदने न खरीदने से ज्यादा फर्क नही पड़ता है .. हां लेखक को बस आपसे प्यार और सम्मान चाहिए होता है जहां उसे लगने लगता है अब मेरी किताबें लिखना क्रांति नही कर पा रही है वो तुरंत फिल्मों - ओटीटी की और रुख कर लेता है .. उसे भूखे मरने की क्या चिंता रहेगी उसके पास सैकड़ों विकल्प रहता है अच्छी आय का .. फिल्म जगत , रियलिटी शो से लेकर सोशल मीडिया तक लेखकों का ही दबदबा है .. एक तरह से लेखक पुरे देश का विचारधाराओं को नेतृत्व कर रहा होता है .... अपने कंटेंट से .. हां वो मंच के पीछे से काम करता है .. उसे उतनी सुर्खियां नही मिल पाती है उनके लिखे शब्दों को बोलकर अभिनेता अभिनेत्री ढेर सारी सुर्खिया बटोर लेते हैं .. ये बात अलग है लेकिन उन अभिनेता अभिनेत्री को भी पता है बुनियाद कोन है और हमेशा मोहब्बत , अदब से लेखकों गीतकारों से मुखातिब होते हैं.. और जहां बात रही शोहरत की लेखक कवि तो वेसे भी तन्हाईप्रस्त है .. उसे भीड़ का सोहबत बिल्कुल नही भाता है .. .... नही किताबें खरीदने से वो लेखक आगे बढ़ जाएगा... अरे वो आगे क्या बढ़ेगा वो अपने हमउमर के लड़कों पहले से दस साल आगे है .. उसके पास मिलियन डॉलर का हुनर है .. हां अगर उन सबका मन खिन्न हुआ तो आपके भाषा का स्तर जरूर गिर जाएगा...
हिंदी साहित्य की कुंठा ये हैं न कि इसमें अति बुद्धिमान और तथाकथित आलोचकों की हिंदी में बाढ़ सी आई हुई है ... और इन सबके बीच अच्छे - अच्छे रचनाकारों की रचनाओं का बेतुक स्पष्टीकरण देकर खारिज करने की और खुद को महान आलोचक सिद्ध करने की होड़ सी लगी हुई रहती है ..
और ये हमेशा अपना तर्क अंग्रजी जर्मन के किसी रचनाकार का उदाहरण देते हुए कहते हैं .. ऐसे कहते हैं जैसे की वर्डस्वर्थ, शैली शेक्सपियर को काव्य कथा सृजन करने का इन सबने ही ट्यूशन दिया हो ...
रामधारी सिंह दिनकर, बाबा नागार्जुन, से लेकर शरद जोशी और कुमार विश्वास तक इनसे त्रस्त रह चुका है ... बाबा नागार्जुन ने करारा व्यंग्य हिन्दी के आलोचकों पर करते हुए कहा था की अगर कीर्ति का फल चखना है, आलोचक को खुश रखना पड़ेगा... दिनकर कहते हैं कि हिंदी साहित्य में लेखक से ज्यादा आलोचक भरा हुआ .है .
शरद जोशी अपने व्यंगतामक अंदाज में कहते हैं की
लेखक विद्वान हो न हो ,आलोचक सदैव विद्वान होता है। विद्वान प्रायः भौंडी बेतुकी बात कह बैठता है। ऐसी बातों से साहित्य में स्थापनाएँ होती हैं। उस स्थापना की सड़ांध से वातावरण बनता है जिसमें कविताएँ पनपती हैं। आलोचना शब्द लुच् धातु से बना है जिसका अर्थ है देखना। लुच् धातु से ही बना है लुच्चा। आलोचक के स्थान पर आलुच्चा या सिर्फ लुच्चा शब्द हिंदी में खप सकता है।
इन बेईमान आलोचकों को लेखक - कविया के प्रसिद्धि से बड़ी चिढ़ होती है पहले तो यथासंभव कोशिश करते हैं की अच्छे महत्वाकांक्षी रचनाकरों का मनोबल तोड़ देने का .. फिर भी अगर लेखक नही रुक रहा हैतो फिर बुराइयां...
___________________article by Rajeev
किसी भी भाषा के साहित्य को जिंदा रखने की जिम्मेदारी सिर्फ लेखकों के कंधे पे नही होती है आप पाठकों और उसभाषी के लोगों पे भी होती है .... इसीलिए आपको अपनी मातृ भाषा की किताबों को खरीदकर पढ़नी चाहिए .. ऐसा नही है की आपके नही खरीदने पर वो लेखक भूखे मर जायेगा बल्कि आपकी भाषा का स्तर गिर जाएगा.. वैसे भी लेखक कभी आपसे अपनी किताबें खरीदने के लिए नहीं कहता है , क्योंकि वो तो किताबें लिखकर बस अपनी कलम का धार तेज कर रहा होता है , अपनी इच्छा पूरा कर रहा होता है .. उसे आपके किताब खरीदने न खरीदने से ज्यादा फर्क नही पड़ता है .. हां लेखक को बस आपसे प्यार और सम्मान चाहिए होता है जहां उसे लगने लगता है अब मेरी किताबें लिखना क्रांति नही कर पा रही है वो तुरंत फिल्मों - ओटीटी की और रुख कर लेता है .. उसे भूखे मरने की क्या चिंता रहेगी उसके पास सैकड़ों विकल्प रहता है अच्छी आय का .. फिल्म जगत , रियलिटी शो से लेकर सोशल मीडिया तक लेखकों का ही दबदबा है .. एक तरह से लेखक पुरे देश का विचारधाराओं को नेतृत्व कर रहा होता है .... अपने कंटेंट से .. हां वो मंच के पीछे से काम करता है .. उसे उतनी सुर्खियां नही मिल पाती है उनके लिखे शब्दों को बोलकर अभिनेता अभिनेत्री ढेर सारी सुर्खिया बटोर लेते हैं .. ये बात अलग है लेकिन उन अभिनेता अभिनेत्री को भी पता है बुनियाद कोन है और हमेशा मोहब्बत , अदब से लेखकों गीतकारों से मुखातिब होते हैं.. और जहां बात रही शोहरत की लेखक कवि तो वेसे भी तन्हाईप्रस्त है .. उसे भीड़ का सोहबत बिल्कुल नही भाता है .. .... नही किताबें खरीदने से वो लेखक आगे बढ़ जाएगा... अरे वो आगे क्या बढ़ेगा वो अपने हमउमर के लड़कों पहले से दस साल आगे है .. उसके पास मिलियन डॉलर का हुनर है .. हां अगर उन सबका मन खिन्न हुआ तो आपके भाषा का स्तर जरूर गिर जाएगा...
हिंदी साहित्य की कुंठा ये हैं न कि इसमें अति बुद्धिमान और तथाकथित आलोचकों की हिंदी में बाढ़ सी आई हुई है ... और इन सबके बीच अच्छे - अच्छे रचनाकारों की रचनाओं का बेतुक स्पष्टीकरण देकर खारिज करने की और खुद को महान आलोचक सिद्ध करने की होड़ सी लगी हुई रहती है ..
और ये हमेशा अपना तर्क अंग्रजी जर्मन के किसी रचनाकार का उदाहरण देते हुए कहते हैं .. ऐसे कहते हैं जैसे की वर्डस्वर्थ, शैली शेक्सपियर को काव्य कथा सृजन करने का इन सबने ही ट्यूशन दिया हो ...
रामधारी सिंह दिनकर, बाबा नागार्जुन, से लेकर शरद जोशी और कुमार विश्वास तक इनसे त्रस्त रह चुका है ... बाबा नागार्जुन ने करारा व्यंग्य हिन्दी के आलोचकों पर करते हुए कहा था की अगर कीर्ति का फल चखना है, आलोचक को खुश रखना पड़ेगा... दिनकर कहते हैं कि हिंदी साहित्य में लेखक से ज्यादा आलोचक भरा हुआ .है .
शरद जोशी अपने व्यंगतामक अंदाज में कहते हैं की
लेखक विद्वान हो न हो ,आलोचक सदैव विद्वान होता है। विद्वान प्रायः भौंडी बेतुकी बात कह बैठता है। ऐसी बातों से साहित्य में स्थापनाएँ होती हैं। उस स्थापना की सड़ांध से वातावरण बनता है जिसमें कविताएँ पनपती हैं। आलोचना शब्द लुच् धातु से बना है जिसका अर्थ है देखना। लुच् धातु से ही बना है लुच्चा। आलोचक के स्थान पर आलुच्चा या सिर्फ लुच्चा शब्द हिंदी में खप सकता है।
इन बेईमान आलोचकों को लेखक - कविया के प्रसिद्धि से बड़ी चिढ़ होती है पहले तो यथासंभव कोशिश करते हैं की अच्छे महत्वाकांक्षी रचनाकरों का मनोबल तोड़ देने का .. फिर भी अगर लेखक नही रुक रहा हैतो फिर बुराइयां...